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संकट में उत्तराखंड ॥ सूख चुके हैं परंपरागत जल स्रोत

संकट में उत्तराखंड के परंपरागत जल स्रोत

उत्तराखंड के संदर्भ में एक कहावत है कि “पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती” ये कहावत अब पूरी तरह से साकार हो चुकी है, पहाड़ों में अब 12वीं के बाद न तो युवा पीढ़ी दिखाई देती है और न ही यहां की नदियों में पानी दिखाई दे रहा है, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की कमी के कारण लगातार उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों से युवा पलायन कर रहे हैं और जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के कारण यहां की वो नदियां जो कभी 12 महीने घराट चलाने में सक्षम हुआ करती थी उन्हीं नदियों में अब सिर्फ बरसात के मौसम में पानी दिखाई दे रहा है। (संकट में उत्तराखंड)

उत्तराखंड के परंपरागत जल स्रोतों के सूखने पर आज सभी पर्यावरण विद चिंतित है क्योंकि वो लोग भविष्य के जल संकट को महसूस कर पा रहे हैं। सरकारें “हर घर नल हर घर जल” व “जल जीवन मिशन” नाम से दर्जनों योजनाएं चला रही है पर उन नलों के माध्यम से जल कहां से आएगा इस पर कोई चिंता करने को तैयार नहीं है। आज के इस लेख में हम इसी मुद्दे पर बात करेंगे और समस्या को गहराई से जानने का प्रयास करेंगे।

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परंपरागत जल स्रोत

उत्तराखंड के परंपरागत जल स्रोतों की हम बात करें तो इसकी एक बहुत लंबी श्रंखला है जिसमें से कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर हर चर्चा करेंगे।

1- छौई (स्रोत )

पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में कई जगहों पर पानी के ऐसे स्रोत दिखाई देते हैं जिनमें हमेशा पानी बहता रहता है इन्हें छौई (स्रोत) कहा जाता है, स्रोत अर्थात जल का एक ऐसा विकल्प जिसमें जल का अनिश्चितकालीन भण्डार छुपा हुआ हो जिसके सूखने की संभावना न के बराबर हो।

2- चुपटौला

जंगलों में बारिश की नमी से बना एक छोटा सा प्राकृतिक जलाशय जोकि आसपास की नमी और बूंद-बूंद पानी के रिसाव पर निर्भर करता है, इसमें उस क्षेत्र का सारा पानी इकट्ठा हो जाता है जोकि छोटे जंगली जानवरों, पंछियों की प्यास बुझाने के लिए उपयुक्त होता है।

3- खाल

बारिश, स्रोत और नदियों के पानी से बना हुआ एक जलाशय जोकि छोटे-बड़े सभी जंगली जानवरों के पानी पीने के साथ-साथ गर्मी मिटाने के लिए भी पर्याप्त हो, इन खालों में बैठकर जंगली जानवर व मवेशी अपने शरीर की गर्मी मिटाने का काम करते हैं।

4- नौला

गांव के परंपरागत जलश्रोत जहां साल भर पानी रहता है, ये गांव के बीच में मौजूद होता है और यहां का पानी ग्रामीण अपने पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं, नौलों को मंदिर की तरह पवित्र माना जाता है और यहां हर वो कार्य प्रतिबंधित होता है जो मंदिरों में प्रतिबंधित हो, नौले रिति-रिवाजों का भी अभिन्न अंग माने जाते हैं इसीलिए इनकी पूजा होती है, नौले का पानी सबसे शुद्ध होता है और हर नौला ईश्वर का वरदान माना जाता है।

चित्र - नौला
चित्र में नौला दिखाया गया है जोकि वर्तमान में जीर्ण-शीर्ण हो चुका है।

5- धारा

ऐसे जलश्रोत जिनसे लगातार पानी बहता रहता है, इसमें नौले की तुलना में अधिक पानी होता है और लगातार बहने के कारण ये पानी सिचाई के काम भी आता है, इसके मुहाने को खूबसूरत संरचनाओं से सुसज्जित किया जाता है जैसे पाइप का टुकड़ा, बांस की डंडी, गौमुखाकार पत्थर, शेर की आकृति का पत्थर आदि

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चित्र - धारा
चित्र में धारा दिखाया गया है जिसका उपयोग लगभग बंद कर दिया गया है।

6- गधेरा

कई श्रोतों, चुपटौलों और खालों का बहता हुआ पानी जब उंचाई वाले स्थान से नीचे की तरफ बहता है तो पानी बहने वाले उस स्थान को गधेरा कहा जाता है, इसमें पानी की मात्रा बहुत अधिक तो नहीं होती लेकिन ये पानी सिचाई के लिए उपर्युक्त अवश्य होता है, इन गधेरों से पानी को नहरों के माध्यम से खेतों तक पहुचाया जाता है और उस पानी को खेतों की सिचाई के काम में लिया जाता है।

7- नदी

कई गधेरों के संगम से बनी जलधारा को नदी कहते हैं, नदियाँ पहाड़ के पानी का सबसे बड़ी इकाई होती है, नदियों के संदर्भ में ही कहा जाता है कि पहाड़ का पानी पहाड़ के काम नहीं आता क्योंकि नदियों से बहता हुआ पानी तराई क्षेत्र की प्यास बुझाने के बाद सीधे महासागर में मिल जाता है।

चित्र - नदी
चित्र में नदियाँ दिखाई गई हैं इनको खनन माफियाओं ने चूस लिया है।

पर्यावरणविदों की चिंता, संकट में उत्तराखंड

उत्तराखंड के परंपरागत जल स्रोतों की दयनीय स्थिति को देखते हुए जहां एक तरफ पर्यावरणविद बहुत चिंतित है उन्हें समझ नहीं आ रहा है की आने वाले इस भयानक जल संकट को किस तरह से नियंत्रित किया जा सकता है फिर भी गिलहरी प्रयास कर वो अपने स्तर पर भविष्य के जल संकट पर नियंत्रण पाने की कोशिश कर रहे हैं  तो वहीं दूसरी तरफ हमारी सरकारें पर्यावरण बचाने और जल संरक्षण के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपए की योजनाएं डकार जा रही हैं, दिखावे के लिए बड़े-बड़े एयर कंडीशनर ऑफिस में बैठकर बोतल बंद पानी पीते हुए पर्यावरण व जल संरक्षण पर चर्चा कर रहे हैं।

पर्यावरणविद जो भविष्य के इस जलसंकट को देख पा रहे हैं।

अब हम कुमाऊँ के उन पर्यावरणविदों की बात करेंगे जो भविष्य के इस जलसंकट पर किसी को दोष देने के बजाए जमीनी स्तर से इस समस्या के निदान के लिए कार्य कर रहे हैं।

चन्दन सिंह नयाल

उत्तराखंड के नैनीताल जिले के धारी ब्लॉक के निवासी चन्दन नयाल एक प्रसिद्द पर्यावरण प्रेमी हैं जिन्होंने लगभग 50 हज़ार से ज्यादा पेड़ लगाकर अपने पास के बंजर जंगल को हराभरा कर एक मिसाल पेश की है, चन्दन ने हजारों चाल-खाल भी बनाए हैं जिसमे हर साल लाखों लीटर पानी जमा होता है और भूजल का स्तर बढ़ता है।

चन्दन नयाल
पर्यावरण प्रेमी चंदन नयाल द्वारा बनाए गए चाल-खाल

चन्दन नयाल द्वारा किये गए कार्यों के लिए राज्य और केंद्र सरकार द्वारा उन्हें कई बार सम्मानित किया गया है

जगदीश नेगी

जगदीश नेगी भवाली के निवासी हैं उन्होंने कैंचीधाम के पास बहने वाली शिप्रा नदी के घटते जलस्तर की समस्या को गंभीरता से लिया और बहुत लम्बे संघर्ष के बाद सरकार का ध्यान गया और शिप्रा नदी के पुनर्जीवन के लिए सरकार ने पहल भी की, जगदीश नेगी ने जंगल बचने के लिए चाल-खाल बनाए और हजारों पौधे रोपकर पर्यावरण संग्रक्षण का काम भी किया।

जगदीश नेगु
पर्यावरणविद जगदीश नेगी द्वारा शिप्रा नदी को पुनर्जीवित करने के लिए किया गया कार्य।

किशन सिंह मलडा

जनपद बागेश्वर के निवासी वृक्षमित्र किशन सिंह मलडा अभी तक 8 लाख से ज्यादा पेड़ लगा चुके हैं, वो अपनी एक नर्सरी (देवकी लघु वाटिका) से उन लोगों को मुफ़्त पौधे उपलब्ध कराते हैं जो पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण का हिस्सा बनना चाहता है, मलडा जी ने अभी तक हजारों लोगों को लाखों पौधे उपलब्ध कराए हैं।

किशन सिंह मलडा
वृक्षमित्र किशन सिंह मलडा अपनी नर्सरी से निशुल्क पौधे वितरित करते हुए

मलडा जी को इस महान कार्य के लिए राज्य सरकारें कई बार सम्मानित कर चुकी हैं, पूरा बागेश्वर जनपद उन्हें वृक्षमित्र नाम से जानती है।

सरकारों की अनदेखी

सरकारें आए दिन पर्यावरण संरक्षण और जल संरक्षण के नाम पर लाखों करोड़ की योजनाएं बना रही है लेकिन उन योजनाओं को जमीन पर उतरना भूल जाती है, सारी योजनाएं अखबारों और टेलिविजनों में विज्ञापनों के रूप में अवश्य दिखाई देती हैं परंतु जमीन पर इसका 5% भी नहीं उतर पता है। अगर हम यह कहें कि सरकार सारी योजनाएं सिर्फ अपने फायदे के लिए लागू कर रही है तो कोई गलत नहीं होगा क्योंकि वर्तमान और पूर्व की सरकारों के नेतागण एयर कंडिशनर दफ्तरों में बैठकर जल संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण पर बैठक करने के नाम पर व योजनाएं बनाकर न जाने कितने करोड़ों रुपए डकार गए इसका कोई हिसाब ही नहीं है लेकिन समस्या आज भी जस की तस्वीर बनी हुई है।

निष्कर्ष

पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण के नाम पर सरकारें और सामाजिक संगठन भले ही कई योजनाएं बना लें तब तक कोई बदलाव नहीं आने वाला है जब तक आम जनमानस इस गंभीर समस्या पर अमल करना शुरू नहीं कर लेता है, जिस दिन आम जनता पर्यावरण संरक्षण और जल संरक्षण पर काम शुरू कर देगी उस दिन न तो सरकारी योजनाओं की आवश्यकता होगी और न ही सरकार में बैठे लोग इसके नाम पर घोटाले कर पाएंगे।

बरसात के पानी को संरक्षित करने, बरसातो में ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने, सीमेंट -कंक्रीट के पहाड़  साथ-साथ प्रकृति के दोहन को रोकने के लिए समाज को एकजुट होना होगा क्योंकि ये एक ऐसा संकट है जिसकी चपेट में सभी जीव-जंतु आएंगे।

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error: थोड़ी लिखने की मेहनत भी कर लो, खाली कापी पेस्ट के लेखक बन रहे हो!