उत्तराखंड में बाहरी देवताओं का दबदबा
जिस प्रकार उत्तराखंड के संसाधनों में उत्तराखंड के मूल निवासियों से अधिक बाहरी लोगों का आधिपत्य हो चुका है उसी प्रकार उत्तराखंड के मूल देवताऔं, ग्राम देवताओं और इष्ट देवताओं से ज्यादा मान्यता इम्पोर्ट किए गए बाहरी देवताओं की हो चुकी है।
आज हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे और जानेंगे कि ऐसा क्या हुआ कि पिछले कुछ वर्षों में पहाड़ के लोगों का अपने गांव के मंदिरों में बसे इष्ट देवताओं से ज्यादा बाहर से बसाए गए बड़े-बड़े फाइव स्टार मंदिरों और संगमरमर के बड़े-बड़े देवताओं पर आस्था हो गई ? (उत्तराखण्ड के ईष्ट)
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कौन हैं पहाड़ियों के इष्ट देवता?
उत्तराखंड के पार्वतीय इलाकों में हजारों-लाखों ईष्ट देवता मौजूद हैं जोकि गांव वासियों के अपने रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अनुसार अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित किए गए हैं। कहीं गोलज्यू के रूप में तो कहीं हरज्यू के रूप में, कहीं नरसिंह जी के रूप में तो कहीं गंगनाथ-भोलनाथ जी के रूप में, कहीं भूमिया-क्षेत्रपाल के रूप में तो कहीं चमू- बधाण और छुरमल देवता के रूप में, कहीं कऊ- भैरु और बीरों के रूप में तो कहीं मईया-कालिका और कलबिष्ट के रुप में, कहीं ऐड़ी-परियों के रूप में तो कहीं नंदा देवी-गर्जिया देवी- नयना देवी के रूप में, कहीं दूनागिरी-पूर्णागिरी के रूप में तो कहीं बद्री – केदार और खोली का गणेश के रूप में।
उत्तराखंड के इन ईष्ट देवों को खुश करने के लिए न तो जोरदार वाद्य यंत्रों की आवश्यकता होती है, ना बड़े-बड़े लाउडस्पीकर और शोर – शराबे की, इन देवताओं के लिए न विशाल भंडारे की आवश्यकता होती है और न ही बाहरी दिखावे की, इन देवताओं को रहने के लिए न तो फाइव स्टार मंदिर चाहिए और ना गगनचुंबी मूर्तियां ये देवता छोटे-छोटे थानों* में भी राजी-खुशी रह सकते हैं और धूप-दीप और नैवेद्य से प्रसन्न होकर हर मनोकामना पूरी कर देते हैं, किसी कारणवश अगर कोई ईष्ट देव नाराज हो गए तो चेटक** भी ऐसा लगाते हैं कि 7 समुंदर पार बैठे हुए व्यक्ति को भी हाथ जोड़ते हुए उन्हें मनाने के लिए पहुचना पड़ता है।
इम्पोर्ट किए गए बाहरी देवता
जैसा कि उक्त लेख में हमने इंपोर्ट किए गए बाहरी देवताओं का जिक्र किया है तो आईए जानते हैं कौन ऐसे देवता है जिन्हें हम इंपोर्ट किए गए बाहरी देवता कह रहे हैं।
जैसा की मूल निवासियों और शहरों में बस चुके उत्तराखंड के प्रवासी लोगों को अपनी संस्कृति और सभ्यता के अलावा दूसरे सभी लोगों की सभ्यताओं को अपनाने का और एक दूसरे की देखा-देखी करने का बड़ा शौक है उसी का परिणाम है कि हम अपने इष्ट देवताओं से ज्यादा बाहरी देवताओं पर विश्वास करने लगे हैं, जिसमें डोलाश्रम, हनुमान धाम, पायलट बाबा आश्रम जैसे नजाने कितने ही बड़े-बड़े फाइव स्टार मंदिर शामिल हैं जिनकी चमक-दमक के सामने सभी नतमस्तक हो रहे हैं और इन व्यापारिक मंदिरों में जाकर अपने ईष्ट देवों को याद करना तक भूल जा रहे हैं।
जिस प्रकार आदमी दिखावे में बर्बाद हो चुका है उसी प्रकार उसकी आस्था भी दिखावे के कारण समाप्त होने जा रही है, आदमी आज मंदिरों में सुविधाएं ढूंढ रहा है, मंदिर परिसर और मूर्तियों का आकार देख रहा है और मंदिर कमेटियां इस आस्था में अपना व्यापार देख रही हैं।
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अपने ईष्ट देवताओं से ज्यादा बाहरी देवताओं पर भरोसा
आज अल्मोड़ा का व्यक्ति नंदा देवी, चितई गोलजू जैसे दर्जनों मंदिरों में जाना छोड़कर चंद वर्ष पूर्व बने डोल आश्रम जाना पसंद करता है उसी प्रकार हल्द्वानी – रामनगर- काशीपुर के लोग गर्जिया देवी, नैयना देवी जाने के बजाय छोई स्थित हनुमान धाम, ज्योलीकोट स्थित पायलट बाबा आश्रम जाना पसंद कर रहा है, मतलब साफ है कि लोगों को अपने ईष्ट देवताओं के थानों में जाने से ज्यादा आनंद इन चकाचौंध वाले फाईव स्टार मंदिरों में जाने में आ रहा है।
आजकल तो स्थिति ये है कि कई लोगों ने हरियाणा, राजस्थान के बाबाओं का स्थान अपने इष्ट देवताओं से उपर कर दिया है, कैमरा के सामने जादूगर की तरह उछलकूद करने वाले कुछ चमत्कारिक बाबा तो लोगों के मंदिरों में तक खुद की फोटो लगवाने में सफल हो चुके हैं।
एक क्रिकेटर या एक एक फिल्म स्टार के किसी मंदिर पहुच जाने मात्र से उस मंदिर के प्रति लोगों का नजरिया ही बदल जाता है, आते-जाते समय जो लोग इन मंदिरों की तरफ पीठ कर लेते थे वो लोग भी श्रद्धालुओं की भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं और घंटों दर्शन के लिए धक्का खाने लग जाते हैं।
उत्तराखण्ड के ईष्ट देवता और बाहरी देवताओं में अंतर
देवभूमि उत्तराखंड के कण-कण में देवताओं का वास है, यहां जागर -बैसी इत्यादि लगाकर अपने इष्ट देवताओं का आह्वान किया जाता है उनको नर स्वरूप में अवतरित कर वाद-संवाद से समस्या का समाधान निकाला जाता है, इष्ट देवताओं को पूरा समाज सामूहिक रूप से पूजता है, पूजा में समाज के हर वर्ग की भागीदारी होती है, इस पूजापाठ में ज्यादा चकाचौध नहीं होती है और ना ही शोरशराबा और दिखावा
बाहरी देवताओं की बात करें तो उनपर किसी बाहरी बड़े व्यापारी या व्यापारिक संगठनों का आधिपत्य होता है, इनका 5 स्टार महलनुमा मंदिर और गगनचुम्बी मूर्तियां लगी होती हैं, मंदिर के आसपास बड़े-बड़े होटल और रैस्टोरैन्ट बने होते हैं, मंदिर का प्रसाद भी बाहरी दुकानदारों के अनुसार तय किया जाता है, यहाँ कानफोडू संगीत और जबरदस्त चकाचौध होती है, यहाँ हर कोई एक दुसरे से खुद को अलग दिखाने की दौड़ में लगा होता है।
ईष्ट देवों की नाराजगी पड़ेगी भारी
पूर्वजों द्वारा इक्ट्ठा की गई जमीन-जायदाद को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित कर उसपर अपना हक जमाना सभी को आता है पर संस्कारों और ईष्ट देवों से आधुनिकता के नाम पर सभी ने पल्ला झाड़ लिया है पर ईष्ट देवों की नाराजगी और पूर्वजों का आक्रोश एक न एक दिन सभी की अक्ल ठिकाने ले ही आएगी।
निष्कर्ष
उत्तराखंड के संसाधनों में जब (बाहरी) गैर मूल निवासियों का आधिपत्य हो सकता है तो बाहरी लोगों के द्वारा बसाए गए देवताओं और उनके रिति रिवाजों का दबदबा होना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन सवाल ये उठता है कि इस चमक-दमक और शोर-शराबे के चक्कर में उत्तराखंड के मूल निवासी अपने ही ईष्टदेवों को भूल रहा है और ईष्ट देवों के थानों में दीपक जलाने को तक नहीं पहुंच रहा है जबकि इम्पोर्ट किए गए बाहरी देवताओं के फाइव स्टार मंदिरों में दिन भर भूखे-प्यासे लाइन पर लगना पसंद कर रहे हैं।
मूल निवासियों को अपने ईष्ट (मूल देवताओं) की अनदेखी नहीं करनी चाहिए क्योंकि जिस दिन ईष्ट देव नाराज हो गए तो पुछ्यार / गणतुओं* और जगरियों* के चक्कर काटते रह जाओगे।
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लेख में प्रयुक्त कुछ पहाड़ी शब्दों के अर्थ👉
थान* – देवताओं के लिए बनाए गए पत्थरों के बने घरोंदेनुमा छोटे-बड़े मंदिर
चेटक* – देवताओं द्वारा दी जाने वाली चेतावनी
गणतु* – ऐसा व्यक्ति जो अपने अंतर्मन की शक्ति से दैवीय समस्याओं का समाधान बता सके।
जगरिया* ऐसा व्यक्ति जो देवताओं का आह्वान कर उन्हें किसी शरीर में प्रवेश करवा सके
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नोट– हम किसी भी बाहरी देवताओं की पूजा के खिलाफ़ नहीं हैं और न हम किसी की आस्था पर आघात करना चाहते हैं। उत्तराखण्ड के ईष्ट देवताओं की अनदेखी के बढते मामलो को देखकर हमने यह लेख सोच-समझकर लिखा है। अगर किसी की भावनाएं आहत हुई हैं तो अपने ईष्ट देवों को याद कीजिए सब ठीक हो जाएगा।।
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