कुमाऊँनी बैठक होली
शहरों के लोग मात्र एक दिन की होली मनाते हैं तथा कुछ जगहों पर तीन-चार दिन की होली होती है जबकि हमारे पहाड़ों में होली का उत्सव नहीं बल्कि महोत्सव होता है, यहां होली को कई महीनों के आनंदमय त्योहार के रूप में मनाया जाता है।
वैसे तो कुमाऊं में बैठक होली बसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती है लेकिन बैठक होली का रंग जमता है महाशिवरात्रि से, शिवरात्रि के दिन कुमाऊं क्षेत्र के लोग भक्तिमय होकर शिवालयों में बैठक होली का आयोजन करते हैं
आपको बता दें कि बैठक होली का आयोजन खासकर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में अल्मोड़ा तथा नैनीताल जिले में होता है, ये लोग होली आने तक बारी-बारी से अपने घरों में बैठक होली का आयोजन करते हैं जिसमें शाम के समय तबला, हारमोनियम, ढोलकी इत्यादि लेकर होली के गीतों को गाते हुए महफ़िल जमाते हैं।
गिर्दा का होलियों पर गहन अध्ययन
जनकवि गिरीश चन्द्र तिवारी गिर्दा ने होलीयों पर गहन अध्ययन करते हुए इसके संदर्भ में कहा है कि (यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है, राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी लाईं, ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं, यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ भरे पड़े हैं)
कहा जाता है कि कुमाऊँनी बैठक होली के गीतों में कुछ हद तक इस्लामी संस्कृति तथा उर्दू के शब्दों का भी समावेश है और इसका प्रारुप भी थोड़ा बहुत मुशायरे से मिलता जुलता ही होता है।
नजीर के कमाल
कुमाऊँनी बैठक होली में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायरों का कलाम भी देखने को मिलता है
(जब फागुन रंग झमकते हों।
तब देख बहारें होली की।।
घुंघरू के तार खनकते हों।
तब देख बहारें होली की।।)
तथा
(मुबारक हो मंजरी फूलों भरी। ऐसी होली खेले जनाब अली।।)
इन गीतों को यहां के लोग कुमाऊँनी अंदाज में गाते हुए महज महफ़िल नहीं जमाते बल्कि अपनी संस्कृति को स्थानांतरित करने का काम भी करते हैं।।
बैठक होली से जुड़े सभी महानुभावों को हम नमन करते हैं क्योंकि उन्हीं लोगों की वजह से ये परंपरा जीवित है।